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संवादों के पाताली डेरे / कुमार रवींद्र
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फैल रहे
महलों के घेरे
कहाँ जाएँ धूप के बसेरे
दूर-दूर तक फैलीं अँधी दीवालें
बंदी तहख़ानों की हैं गहरी चालें
इनमें हैं
बसे हुए
अनुभवी अँधेरे
गूँजों से भरे हुए बहरे गलियारे
रहते हैं इनमें चमगादड़ हत्यारे
मिलते हैं
यहाँ सिर्फ़
मुँह-ढँके सबेरे
गूँगे आकाशों की कौन सुने बातें
केवल हैं धूर्त अट्टहासों की घातें
और बचे
नकली संवादों के
पाताली डेरे