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घाटी में अँधकार है / कुमार रवींद्र

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पर्वत पर बैठकर
           क्रूर हिम-शिलाएँ
करतीं हैं बातें धूप के युगों की
               घाटी में अँधकार है
 
बर्फ़ की हवाओं को भेजकर
करतीं ऐलान वे
अगले मधुमासों का
पेड़ों के ठूँठ पर ठहरा है
एक ठंडा भय
सूरज की साँसों का
 
काँटों के जंगल के पार
            कोहरे उन्मुक्त घूमते हैं
              सहमे सूर्यास्त के विचार हैं
 
कहीं-कहीं फूलों के प्रश्न
खोज रहे उत्तर
पतझर के सूने आकाश में
धुँध की प्रतीक्षा में खड़े-खड़े
थक गईं दिशाएँ
डूब गई आँख त्रास में
 
हर तरफ प्रचारित है - आएँगे
              फागुन के दिन
            सदियों से जो उधार हैं