भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
राजाजी नंगे हैं / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:57, 11 जुलाई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= कुमार रवींद्र |संग्रह=आहत हैं वन / कुमार रवींद्…)
आता है फिर जुलूस
राजसी उमंगें हैं
गूँज रहा शांति-पाठ
थोड़े-से दंगे हैं
हाथी है
सोने की झूलन है
चाँदी के झंडे हैं
आगे हैं बाजे
पीछे कुछ नए-नए पंडे हैं
कहने को कह लो
राजाजी थोड़े बेढंगे हैं
जादू के चरखे पर
कता-हुआ रेशम
वे पहने हैं
धूप का अँगरखा है
किरणों के गहने हैं
कौन मूर्ख कहता है फिर
राजाजी नंगे हैं
हुक्म है हवाओं को
झुककर वे चलें ज़रा
जलसे में
पूछो मत
कौन जिया - कौन मरा
अरे भाई, राजाजी स्वयं
भले-चंगे हैं