जब मिटा कर नगर गया होगा
फिर वो लम्हा ठहर गया होगा
है वो हैवान उसको डर कैसा
खुद से मिलते ही डर गया होगा
जिस सवाली के हाथ खाली थे
वो सवाली किधर गया होगा
अब न ढूंढो वो सुबह का भूला
शाम होते ही घर गया होगा
खिल उठी फिर से इक कली "श्रद्धा"
ज़ख़्म-ए-दिल कोई भर गया होगा