भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हाट ही सब बिकाय / हरे प्रकाश उपाध्याय

Kavita Kosh से
Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:19, 16 जुलाई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरे प्रकाश उपाध्याय |संग्रह=खिलाड़ी दोस्त और अ…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


गाँव में हाट नहीं था जब
ले-दे के चलता था काम
इधर वाला पड़ता बीमार तो
उधर वाला करता
उसके पशुओं का सानी-पानी
उधर वाले का बच्चा रोता तो
इधर वाला उसे पिलाता दूध
आखिर कहाँ बेचा-खरीदा जाता और क्यों?

किसी के घर ब्याह लगता तो
टोले की तमाम औरतें
जुटकर पीस-कूट देतीं अन्न-मसाले
जब गाँव से कोई एक लड़की की
डोली उठती तो
दिनभर गाँव में बारिश होती

परोजन के लिये
माँगनी माँगते लोग दूध
बरतन और बिछावन
पैसे की अकड़ में
कोई भाड़े से या मोल ले आये चीजें दूर बाजार से
तो ताना देता सारा गाँव
मौका पड़ा तो
पूरा गाँव एक दालान में जुट जाता

मगर जब से दुनिया ही हो गयी है गाँव
और गाँव हो गया है हाट
बदल गये हैं नजारे
वह दालान ढह गयी है जहाँ
मिल जुटकर बतियाते थे ग्रामीण
भैया, चाचा, बहिनी सब हो गये हैं दुकानदार

खरका भी हुआ तो बिका
कौन किसी को दे कुछ और क्यों
मूरख ही होगा जो अब माँगे
जब बिक रही हैं सारी चीजें यहीं
पैसे हो गये हैं गोतिया-पड़ोसी
रहे तो बची रोटी-बेटी की इज्जत
नहीं तो चढ़ जा बेटा सूली पर...