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ग्राम्य संध्या / रविशंकर पाण्डेय
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ग्राम संध्या
डूबी -डूबी साँझ ढले जब
गोधूलि बेला धिर आये,
भूले गीतों के कदमों पर
थकी राह तब घर को आये!
गुमसुम धुआँ, लकीर गया है
टूटे दरबों के पाखों पर,
नीम और पीपल बुनते है
सन्नाटा पत्तों शाखों पर,
वन तुलसी के ,गंध ज्वार में-
महमह सब घर द्वार नहाए!
उड़े सिलसिलेवार परिंदे
चहक उठे-सब रैन बसेरे
चौपायों के संग-संग कोई
घायल मन से-बिरहा टेरे,
देहरी पर बैठी मिलनाकुल
कब से संध्या दीप जलाये!
दूर कहीं ठाकुर द्वारे के-
घरीघंट की गूँज चुपाई,
सहलाता-भूखे बछड़े को
कोई गा गाकर चौपाई
लील रहे हैं मुंडेरों को
धुँधले से संझवट के साये!
भूखे गीतों के कदमों पर
थकी राह तब घर को आये।