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मिल गया मुझ को / मासूम शायर

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मुहब्बत में मुहब्बत के सिवा सब मिल गया मुझ को
नही मिलना था उस को पर मेरा रब मिल गया मुझ को

कोई ये आ के कहता है कि उस को खो दिया मैने
गुमा तो बाद में होगा मगर कब मिल गया मुझ को

इसे वो आग कहते थे मगर कब जान मैं पाया
बड़ों की बात का मानी सुनो अब मिल गया मुझ को

मज़ा खोने में भी कुछ है जिसे मैं आज समझा हूं
ये बहते अश्क़ कहते हैं अरे सब मिल गया मुझ को

हमेशा यूं ही तड्पूं मैं मुझे मरने नही देता
जब अपनी जान देनी थी वही तब मिल गया मुझ को

उसे बस देख कर इन में मेरी आँखों को चूमा था
अचानक चाँद तेरा ये कोई शब मिल गया मुझ को

किसी तपती दुपहरी में दिया जब आब प्यासे को
कहा 'मासूम' ने मुझसे कि मज़हब मिल गया मुझ को