भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नींद में सोयी हुई थी मैं उसांसों से जगी / गुलाब खंडेलवाल

Kavita Kosh से
Vibhajhalani (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:29, 20 जुलाई 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


नींद में सोयी हुई थी मैं उसांसों से जगी
पा तुम्हारा स्पर्श, वीणा की तरह बजने लगी
 
स्वप्न से उस जागरण में, चकित-नयना बालिका-सी
अरुण पुलकों से लदी मैं खिल पड़ी शेफालिका-सी
मधुर स्पंदित उर कहीं निज को छिपाना चाहता था
तिर चली संगीत पर भुज-बल्लि गौर मरालिका-सी
चंद्रिकाकुल सरित के तट पर गयी सहसा ठगी
प्राण! तुमको देख मैं मंजीर-सी बजने लगी
 
साँस में तुमने जलाये दीप, मैं हँसने लगी थी
प्रेम की मनुहार पाकर, स्वप्न में बसने लगी थी
पी गयी ज्वाला अमरता की तुम्हारी दृष्टि से मैं
चाँद था पीला गगन में चाँदनी धँसने लगी थी
चटकती थीं रुपहली कलियाँ लताओं पर टँगी
प्रिय! तुम्हारे अंक में मैं बीन-सी बजने लगी
 
अरुण पल्लव से सुकोमल हाथ में ले हाथ मेरा
फुल्ल कुसुमों से किया अभिषेक तुमने, नाथ! मेरा
माधवी वन में न जाने सो गयी कब, गर्विता मैं?
कब गये थे छोड़कर सुनसान में तुम साथ मेरा
चूम गौर कपोल की सिहरन अरुणिमा से रँगी
जब तुम्हारी साँस में मैं वेणु-सी बजने लगी?