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वह मुझी में है भय / नंदकिशोर आचार्य

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एक अनन्त शून्य ही हो
यदि तुम
तो मुझे भय क्यों है ?
कुछ है ही नहीं जब
जिस पर जा गिरूँ
चूर-चूर हो छितर जाऊँ
उड़ जायें मेरे परखचे
तक क्यों डरूँ ?

नहीं, तुम नहीं
वह मुझी में है भय
मुझ को जो मार देता है
और इसलिए वह रूप भी
जो तुम्हें आकार देता है।

(1981)