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जौहर / श्यामनारायण पाण्डेय / स्वप्न / पृष्ठ २

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प्रश्न पूरे भी न मेरे थे हुए,
पेट दिखला फूटकर रोने लगी।
आँसुओं में बाढ़ आई वेग से,
वेदना से वह विकल होने लगी॥

बार बार विसूरती थी विलपती,
कह रही थी व्यग्र हूँ मैं हूँ विकल।
हूँ अधिष्ठात्री तुम्हारे दुर्ग की,
चैन से अब रह न जाता एक पल॥

क्या कहूँ मैं भूख से बेचैन हूँ,
मर मिटूँ क्या प्यास से मेवाड़ में।
क्या यही है अर्थ पृथ्वीपाल का,
अब न बल है शक्ति है कुछ प्राण में॥

हूँ क्षुधा से व्यग्र अन्न न चाहिए,
हूँ तृषाकुल पर न पानी चाहिए।
भूख नर-तन की रुधिर की प्यास है,
भूप! मुझको नव जवानी चाहिए॥

एक सुत को जितने पुत्र हैं,
मैं उन्हीं का रुधिर पीना चाहती।
आज कंठों का उन्हीं के हार ले
दुर्ग में सानंद जीना चाहती॥

यदि न ऐसा हो सका तो राज यह
वैरियों के हाथ में ही जान लो।
बंद आँखें खोलकर देखो मुझे,
दुर्गदेवी को तनिक पहचान लो॥

शयन – गृह में एक ज्योति चमक उठी,
नयन मेरे चौंधियाकर मुँद गए।
छिप गई वह, पर हृदय पाषाण पर
देविका के अमिट अक्षर खुद गए॥

मौन रहकर दी वहाँ स्वीकृति सहम,
बँध गई हिचकी, उठा रोने लगा।
घन – घटाएँ बन गईं आँखें सजल,
आँसुओं में चेतना खोने लगा॥

बिपति एकाकी न आती है कभी,
साथ लाती है दुखों का एक दल।
एक कटु संदेश अरि का आ गया,
छिड़कता व्रण पर नमक वैरी सबल॥

रतन कल आखेट को जो थे गए,
महल में अब तक न आए लौटकर।
कौन जाने किस बिपति में हैं फँसे,
दे रहा खिलजी दुखद संदेश पर॥

क्रूर खिलजी ने बड़े अभिमान से
सूचना दी, ‘रतन कारागार में’।
लिख रहा, ‘पूरी न होगी चाह तो
रह न सकता रतन - तन संसार में॥

पद्मिनी का ब्याह मुझसे दो करा,
हीरकों से कोष लो मुझसे भरा।
है यही इच्छा इसे पूरी करो,
कनक लो, मणिरतन लो, धन लो, धरा॥

पद्मिनी के साथ हूँगा मैं जभी,
मुक्त होगा रतन कारा से तभी।
यदि मिलेगी पद्मिनी रानी न तो,
फूँक दूँगा, नाश कर दूँगा सभी॥

यदि न मेरी बात मानी जायगी,
यदि न मेरे साथ रानी जायगी।
राजपूतो, तो समझ लो जान लो,
धूल में मिल राजधानी जाएगी॥

कसम खाता हूँ खुदा की मान लो,
तेज तलवारें तड़पतीं म्यान में।
लाल कर देंगी महीतल रक्त से,
हो न सकती देर जन – बलिदान में’॥

स्वप्न राणा के सुने, फिर शत्रु की
सूचना सुनकर सभी चुप हो गए।
दुख – घृणा से भर गए उनके हृदय,
अर्ध – मूर्छित से अचानक हो गए॥

मूर्छना थी एक क्षण, फिर क्रोध से
नयन से निकलीं प्रखर चिंगारियाँ।
एक स्वर में कह उठे सरदार सब,
हो गईं क्या व्यर्थ वीर कटारियाँ॥

नीच उर में नीचता का वास है,
कह रहा उसको करेगा, जान लो।
उचित अनुचित का न उसको ज्ञान है,
सूचना से शत्रु को पहचान लो॥

इसलिए गढ़ को अभी कटिबद्ध हो,
रण – तयारी तुरत करनी चाहिए।
वीर तलवारें उठें मैदान में,
अरि – रुधिर से भूमि भरनी चाहिए॥

रण विचार न व्यर्थ करना चाहिए,
हाथ में हथियार धरना चाहिए।
सिंह–सम रण में उतरना चाहिए,
मारना या स्वयं मरना चाहिए॥