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हरिद्वार की गंगा के किनारे / गुलाब खंडेलवाल

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जीवन के दाँव सभी हार चला आया मैं
प्यारभरी सुनके पुकार चला आया मैं
धार में भिगोने चेतना के निराधार पंख
तीर जाह्नवी के तार-तार चला आया मैं
 
अंग में उमंग ही उमंग लिये आयी है
शिव की विभूति निज संग लिये आयी है
जैसे आ गया मैं रंग-ढंग अस्त-व्यस्त लिये
यह भी कुछ वैसी ही तरंग लिये आयी है
 
महिमा में इसकी न तिल भर अत्युक्ति है
यही भव-मुक्ति, पराभव से विमुक्ति है
काम-कपिलाग्नि में झुलसते हुए जीवन को
शान्ति से सहेजने की एक यही युक्ति है
 
होता यदि मीन तो लहर में किलोलता
मृग-शिशु होता यदि तीर-तीर डोलता
होता गन्धवाह तो सुगंध घोल देता यहीं
होता जो स्वतन्त्र निज मन्त्र यहीं बोलता
 
जीवन की गति का विराम कभी होना है
कृति का कृतिकार को प्रणाम कभी होना है
माता! पहचान ले, सुरम्य इन्हीं लहरों में
मेरा भी धवल एक धाम कभी होना है
 
सारे उर-शूल तुझे सौंप चला जाऊँगा
जीवन दुखमूल, तुझे सौंप चला जाऊँगा
मुट्ठीभर धूल छोड़ काल की अकूलता में
पत्ते और फूल तुझे सौंप चला जाऊँगा
 
लहर-लहर में है रजत हास इंदु का
इंदु में लहराता विभास क्षीरसिन्धु का
सिन्धु में कहीं पर क्षीरशायी के चरण-तले
अंकित रहेगा इतिहास एक बिंदु का