भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
फिरे, सब फिरे / गुलाब खंडेलवाल
Kavita Kosh से
Vibhajhalani (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:37, 22 जुलाई 2011 का अवतरण
फिरे, सब फिरे
लहरों के बीच हम अकेले ही तिरे
कोई द्वार से ही, कोई गाँव के सिवान से
कोई पनघट से, कोई खेत-खलिहान से
जानकर फिरे कोई फिरे अनजान-से
आप अपने ही से घिरे
लौट गए कोई सुभाषित उछालते
सावधान करते, सहेजते, सँभालते
कुछ फिरे तीर से नयन-नीर ढालते
रूप के रसिक जो निरे
नीचे महासिंधु, नभ ऊपर अपार है
कोई संग-साथ न तो प्रिय-परिवार है
झंझा की नाव, ज्वार की ही पतवार है
कभी उठ गए, कभी गिरे
फिरे, सब फिरे
लहरों के बीच हम अकेले ही तिरे