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कैकेई मन में थी पछताती / गुलाब खंडेलवाल
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कैकेई मन में थी पछताती
'मैं विषबेलि न बोती यदि क्यों सीता यह दुःख पाती
'यदि न मंथरा मुझे चढ़ाती
मैं हठ कर न वचन मनवाती
क्यों कुलवधू असुरपुर जाती!
दुष्टों की बन आती!
'पावक भी न जिसे छू पाये
सती शिरोमणि जो कहलाये
पति से उसका त्याग कराये
विधि गति कही न जाती
'क्यों न साथ मैं भी वन जाऊँ
कुछ तो पाप ताप धो पाऊँ
राजा को कैसे समझाऊँ
किये वज्र सी छाती!'
कैकेई मन में थी पछताती
मैं विषबेलि न बोती यदि क्यों सीता यह दुख पाती