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बर्फ / सुदर्शन प्रियदर्शिनी

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बर्फ पर बर्फ़
कोहरे पर कोहरा
जमता ही जाता है
यहॉ धूप के लिए
दरीचो़ं के बीच भी
कहीं सुराख नही है।
जब अपने ही ताप से
सन्तप्त हो
यह कोहरा पिघलेगा
तो अपने आस पास
कितनी दरारें
कितने खङङे खोद देगा
जो कभी भरने का
नाम नही लेगे ।
यह हृदय म्युनिसिपैलिटी की
सङ़क नही कि
मौसम के बाद
अपने डैटूयूर के
बोड लगा कर
सङ़कों के
पैबंद भर देगी ।
यहॉ तो लगी हुई
एक भी खरोंच
उम भर का दर्द
उम भर की सीलन
बन कर
अन्दर ही अन्दर
खा जायेगी ।