भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
माँ / भारत यायावर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:00, 12 जुलाई 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=भारत यायावर |संग्रह=हाल-बेहाल / भारत यायावर }} भीतर टटो...)
भीतर टटोलता हूँ
मिलता है एक शब्द--माँ!
जिससे दूर हूँ
माँ रोज प्रतीक्षा करती होगी
चिट्ठी भी नहीं लिख पाता
सोचता हूँ-- कल ही चला दूँगा गाँव
बिना कुछ लिए-दिए
किसी से कुछ नहीं कहूँगा
सुबह उठूँगा और बासी मुँह
बस पकड़ कर चला जाऊँगा गाँव
वहाँ माँ तो है
मेरा बचपन तो है
और हैं मेरी चुहलबाजियाँ
यहाँ महानता का नकाब चेहरे पर डाले
दम घुटता रहता है
एक दुख काँटे की तरह
भीतर-ही-भीतर करकता रहता है
लिखने के लिए जब भी टटोलता हूँ भीतर
सिर्फ़ एक शब्द मिलता है--माँ
जिससे दूर हूँ
बचपन से माँ अपनी आहुति देती रही
होम करती रही अपना जीवन
और हम भाई-बहन बड़े हुए
बड़े हुए और दूर हुए
इतनी दूर कि भीतर माँ
सिर्फ़ एक शब्द के रूप में बची रही
(रचनाकाल : 1990)