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सावन-भादों साठ ही दिन हैं / इब्ने इंशा

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सावन-भादों साठ ही दिन हैं फिर वो रुत की बात कहाँ

अपने अश्क मुसलसल बरसें अपनी-सी बरसात कहाँ


चाँद ने क्या-क्या मंज़िल कर ली निकला, चमका, डूब गया

हम जो आँख झपक लें सो लें ऎ दिल हमको रात कहाँ


पीत का कारोबार बहुत है अब तो और भी फैल चला

और जो काम जहाँ को देखें, फुरसत दे हालात कहाँ


क़ैस का नाम सुना ही होगा हमसे भी मुलाक़ात करो

इश्क़ो-जुनूँ की मंज़िल मुश्किल सबकी ये औक़ात कहाँ


(रचनाकाल : )