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वक्त की आंधी / अवनीश सिंह चौहान

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वक्त की आंधी उड़ाकर
ले गयी सब कुछ हमारा

नम हुई है आँख, मन पर
बादलों के झुण्ड हैं अब
धड़ धड़कता है कहीं पर
फड़फड़iते मुंड हैं अब

रो रहीं लहरें नदी की
छोड़करके अब किनारा

पांव में जंजीर भारी
और मरुथल-सी डगर है
रिस रहे छाले ह्रदय के
और दुनिया बेख़बर है

सब तरफ बैसाखियाँ हैं
कौन दे किसको सहारा!

सोच मजहब-जातियों में
रह गए है मात्र बंटकर
जी रहे हैं किस्त में हर
साँस वो भी डर-संभलकर

सुर्खियाँ बनकर छपीं हैं
मर गया कैसे लवारा?