पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / प्रथम सर्ग / पृष्ठ - ४
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उमंग-भ युवक
गीत
हैं भूतल-परिचालक प्रतिपालक ए।
तोयधि-तुंग-तरंग युवक-उमंग-भरे॥1॥
हैं भव-जन-भय भंजन मन-रंजन ए।
बंधन-मोचन-हेतु अवनि में अवतरे॥2॥
हैं अनुपम यश-अंकित अकलंकित ए।
लोक अलौकिक लाल मराल विरद वरे॥3॥
हैं दानव-दल-दण्डन खल-खंडन ए।
अरि-कुल-कंठ-कुठार अकुंठित व्रत धरे॥4॥
हैं नर-पुंगव नागर सुखसागर ए।
मनुज-वंश-अवतंस सरस रुचि सिर-धरे॥5॥
हैं जनता-संजीवन जग-जीवन ए।
पीड़ित-जन-परिताप-तप्त पथ पौसरे॥6॥
हैं समाज-सुख-साधक दुख-बाधक ए।
देश-प्रेम-प्रासाद प्रभावित फरहरे ॥7॥
हैं नवयुग-अधि प्रिय पायक ए।
वसुधा-विजयी वीर विजय-प्रद पैंतरे॥8॥
हैं सुविचार-प्रचारक परिचारक ए।
सब सुधार-आधार-धरा-पादक हरे॥9॥
हैं पविता-परिचायक शित शायक ए।
सब पदार्थ-सर्वस्व स्वार्थ-परता परे॥10॥
वंशस्थ
सदैव होवें समयानुगामिनी।
प्रसादिनी मानवतावलम्बिनी।
गरीयसी, गौरविता, महीयसी।
यवीयसी हो युवक-प्रवृत्तियाँ॥11॥
प्रफुल्ल हों, पीवर हो, प्रवीर हों।
प्रवीण हों, पावन हो, प्रबुध्द हों।
विनीत हों, वत्सलता-विभूति हों।
वसुंधरा-वैभव बाल-वृन्द हों॥12॥
वसंत-तिलका
भूलोक-भूति भवसिध्दि-मयी मनोज्ञा।
सारी धरा-विजयिनी कल-कीत्ति कान्ता।
सम्पत्तिदा जन-विपत्ति-विनाश-मूर्ति।
होवे पुनीत प्रतिपत्ति युवा जनों की॥13॥
धीरा प्रशान्त अति कान्त नितान्त दिव्या।
हिंसा-विहीन सरसा भव-वांछनीया।
संसार-शान्ति अवनी नवनी समाना।
हो पूत-भाव-जननी जनताभिलाषा॥14॥
हो उक्ति मंजु अनुरक्ति प्रवृत्ति पूत।
आसक्ति उच्च भव-भक्ति-विरक्ति-हीन।
बाधामयी विषमता क्षमता-विनाशी।
हो सिध्द-भूत समता ममता युवा की॥15॥
भूले न लोक-हित मंत्र-मदांध हो के।
पी के प्रसाद-मदिरा न बने प्रमादी।
पाके महान पद मानवता न खोवे।
होवे न मत्त बहु मान मिले मनस्वी॥16॥
दे दे विभा विहित नीति विभावरी को।
पाले कुमोदक-समान प्रजाजनों को।
सींचे सुधा बरस के अरसा रसा को।
सच्चा सुधाधर बने वसुधाधिकारी॥17॥