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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / द्वितीय सर्ग / पृष्ठ - ४

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गीत

जब ज्ञान-नयन को खोला।
अगणित ब्रह्मांड दिखाये।
प्रति ब्रह्म-अण्ड में हमने।
बहु विलसित ता पाये॥1॥

        ये अखिल अंड विभुवर के।
        तन-तरु के कतिपय दल हैं।
        उस वारिद-से वपुधर के।
        वपु से प्रसूत कुछ जल हैं॥2॥

बहु अंश विश्व का अब भी।
है क्रिया-विहीन अनवगत।
विज्ञान-निरत विबुधो का।
है माननीय-तम यह मत॥3॥

        ब्रह्मांड क्या? गगन-तल के।
        ये नयन-विमोहन ता।
        कितने विचित्र अद्भुत हैं।
        कितने हैं छवि में न्या॥4॥

यदि महि मृत्कण रवि घट है।
तो हैं बहु तारक ऐसे।
जिनके सम्मुख बनते हैं।
रवि से भी रजकण जैसे॥5॥

        है जगत-ज्योति अवलंबन।
        अनुरंजनता- दृग- प्यारे।
        हैं कौतुक के कल केतन।
        ये कान्ति-निकेतन ता॥6॥

नभ-तल-वितान में कितने।
हैं लाखों लाल लगाते।
कितने असंख्य हीरक-से।
उज्ज्वल हैं उसे बनाते॥7॥

        लाखों पन्नों को कितने।
        पथ में उछालते चलते।
        कितने नीलम-मन्दिर में।
        हैं मणि-दीपक-से बलते॥8॥

पीताभ मंजुता महि में।
हैं बीज विभा का बोते।
अगणित पीली मणियों से।
कितने मंडित हैं होते॥9॥

        लेकर फुलझड़ी करोड़ों।
        कितने हैं क्रीड़ा करते।
        कितने अनन्त में अनुपम।
        अंगारक-चय हैं भरते॥10॥

बहुतों को हमने देखा।
नाना रंगों में ढलते।
ऐसे अनेक अवलोके।
जो थे मशाल-से जलते॥11॥

        आलात-चक्र-से कितने।
        पल-पल फिरते दिखलाये।
        क्या चार चाँद कितनों में।
        हैं आठ चाँद लग पाये॥12॥

पारद-प्रवाह सम कितने।
हैं द्रवित प्रभा से भरते।
कितने प्रकाश-झरने बन।
हैं प्रतिपल झर-झर झरते॥13॥

    हैं बुध्दि बावली बनती।
    बुध-जन कैसे बतलायें।
    हैं ललित ललिततम से भी।
    लीलामय की लीलायें॥14॥32॥

शार्दूल-विक्रीडित

व्यापी है जिसमें विभा वलय-सी नीलाभ श्वेतप्रभा।
होते हैं सित मेघ-खंड जिसमें कार्पास के पुंज-से।
सर्पाकार नितान्त दिव्य जिसमें नीहारिकाएँ मिलीं।
फैला है यह क्या पयोधिक-पय-सा सर्वत्र आकाश में॥33॥

    क्या संसार-प्रसू विभूति यह है? क्षीराब्धिक क्या है यही?
    क्या विस्तारित शेषनाग-तन है नीहारिका-रूप में?
    क्या आभामय कान्ति श्याम वपु की है श्वेतता में लसी।
    किम्बा है यह कौतुकी प्रकृति की कोई महा कल्पना॥34॥