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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / तृतीय सर्ग / पृष्ठ - ३

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(2)

शार्दूल-विक्रीडित

लेके मंजुल अंक में प्रथम दो धारें सदाभामयी।
पा के नूतन लालिमा फिर मिले प्यारी प्रभा भानु की।
ऐसा है वह कौन लोक जिसको है मोह लेती नहीं।
लीलाएँ कर मन्द-मन्द हँस के प्राची दिशा सुन्दरी॥1॥

है लालायित नेत्र प्रीति-जननी है लालिमा से लसी।
है लीला-सरि की ललाम लहरी प्रात:प्रभारंजिनी।
है प्राची-कर-पालिता प्रिय सुता है मूर्ति माधुर्य की।
ऊषा है अनुराग-राग-वलिता आलोक मालामयी॥2॥

(3)

गीत

विलसी हैं नभ-मंडल में।
आभामय दो धाराएँ।
गत होते तम में प्रकटीं।
या रवि-रथ-पथ-खाएँ॥1॥

अनुराग-रागमय प्राची।
कमनीय प्रकृति-कर पाली।
है राह देखती किसकी।
रख मंजुल मुख की लाली॥2॥

सिन्दूर माँग में भरकर।
पाकर लालिमा निराली।
क्यों लोहित-वसना आयी।
ले जन-रंजनता ताली॥3॥

क्यों हुईं दिशाएँ उज्ज्वल।
क्यों कान्ति मनोरम पाई।
उनकी मनमोहक आभा।
क्यों मंद-मंद मुसकाई॥4॥

अति रुचिकर चमर हिलाता।
बन सुरभित सरस सवाया।
क्यों मन्द-मन्द पद रखता।
शीतल समीर है आया॥5॥

क्यों गूँज रहा है नभतल।
क्यों उसमें स्वर भर पाया।
बहु उमग-उमग विहगों ने।
क्यों राग मनोहर गाया॥6॥

क्यों हैं फूली न समाती।
उनकी निखरी हरियाली।
क्यों खड़े हुए हैं तरुवर।
लेकर फूलों की डाली॥7॥

विकसित होती हैं पल-पल।
किसलिए कलित कलिकाएँ।
धारण कर मुक्ता-माला।
क्यों ललित बनीं लतिकाएँ॥8॥

अलि किसका गुण गाते हैं।
रच-रचकर निज कविताएँ।
क्यों हैं कल-कल रव करती।
सितभूत सकल सरिताएँ॥9॥

जगती - जीवन - अवलम्बन।
वसुधातल - ताप - विमोचन।
उदयाचल पर आता है।
क्या सकल लोक का लोचन॥10॥

(4)

शार्दूल-विक्रीडित

साधे से सब सौर-मंडल सधा, बाँधे बँधीर शृंखला।
पाले से उसके पली वसुमती, टाले टली आपदा।
पाता है तृण-राजिका विटप का, त्राता लता-बेलि का।
धाता है रवि सर्व-भूत-हित का, है अन्नदाता पिता॥1॥

रत्नों की कमनीय कान्ति दिव को, वारीश को रम्यता।
आभा-सी सुविभूति भूत-दृग को, तेजस्विता दृष्टि को।
भू को वैभव, पुष्प को विकचता, सदूर्णता वस्तु को।
देता है रवि ज्योति-पुंज विधु को, हेमाद्रि को हेमता॥2॥

विधु-विभव

(1)

गीत

जब मंद-मंद विधु हँसता।
नभ-मंडल में है आता।
तब कौन नयन है जिसमें।
वह सुधा नहीं बरसाता॥1॥

है वह वसुधा-अभिनंदन।
कुमुदों का परम सहारा।
सर्वस्व सरस भावों का।
रजनी-नयनों का तारा॥2॥

क्यों कला कला दिखलाकर।
बहु ज्योति तिमिर में भरती।
कमनीय कौमुदी कैसे।
रजनी का रंजन करती॥3॥

क्यों चारु चाँदनी भू पर।
सित चादर सदा बिछाती।
कैसे विलसित कुसमों पर।
छवि लोट-पोट हो जाती॥4॥

कैसे दिगन्त में बहता।
बहु दिव्य रसों का सोता।
क्यों निधिक उमंग में आता।
जो नहीं कलानिधि होता॥5॥

जो नहीं निकलती होती।
विधु-कर से प्रिय रस-धारा।
तो बड़े चाव से कैसे।
खाता चकोर अंगारा॥6॥

पाकर मयंक-सा मोहक।
जो नहीं मधुर मुसकाती।
जगती-जन का अनुरंजन।
कैसे रजनी कर पाती॥7॥

हिमकर है सुधा-निकेतन।
वसुधा-हित जलधिक-विलासी।
है इसीलिए विभु-मानस।
शिव - शंकर - शीश - निवासी॥8॥

दोनों के दोनों हित हैं।
है छिका अहित-पथ-नाका।
राकापति राका-पति है।
राकेश-रंजिनी राका॥9॥

विधु कान्त प्रकृति-कर-शोभी।
है रजत-रचित रस-प्यारेला।
जो छलक-छलक करता है।
क्षितितल को बहु छवि वाला॥10॥

वह है सुख सुन्दर मुखड़ा।
आनन्द - कल्पतरु - थाला।
है मुग्धकारिता-मंडन।
दिनकर कोमल कर पाला॥11॥

नवनी समान मृदु मंजुल।
अवनीतल - विरति - विभंजन!
है चन्द्र, लोक-पति-लोचन।
तम-मोचन रजनी-रंजन॥12॥