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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / तृतीय सर्ग / पृष्ठ - ४

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(2)
शार्दूल-विक्रीडित

है राकापति, मंजुता-सदन है, माधुर्य-अंभोधि है।
है लावण्य-सुमेरु-शृंग, जिसको आलोक-माला मिली।
पाती हैं उपमा सदैव जिसकी सत्कान्ति की कीत्तियाँ।
जो है शंकर-भाल-अंक उसको कैसे कलंकी कहें॥1॥

दे दे मंजु सुधा लता विटप को है सींचता सर्वदा।
नाना कंद समूह को सरस हो है सिक्त देता बना।
पुष्पों को खिलता विलोक हँसता स्नेहाम्बुधारा बहा।
न्यारा है वह चारु चन्द्र जिसकी है प्रेमिका चन्द्रिका॥2॥

पाता है सुकुमारता-सदन का, है स्निग्धता का पिता।
धाता है रस का, महा सरस का सौन्दर्य का है सखा।
दाता है कमनीय कान्ति-निधि का, माधुर्य का है धुरा।
छाता है विधु एक क्षत्रपति का संदीप्त-रत्नच्छटा॥3॥

है आभा कमनीय पुंज, महि का साथी, सिता का धनी।
नाना औषध-मूल-भूत, प्रतिभू पीयूष-पाथोधिका।
है धाता प्रतिभा प्रसूत, रवि का स्नेही, सुरों का सखा।
कान्तात्मा कवि के कला-निलय का आलोक राकेश है॥4॥

शृंगों के हिम-पुंज का सुछवि का प्रासाद की दीप्तिका।
पुष्पों पल्लव आदि के विभव का आभामयी वीचिका।
भू की अन्य विभूति का, प्रकृति के संसिक्त सौन्दर्य का।
है आधार मयंक वारिनिधि के उन्मुक्त उल्लास का॥5॥

तारकावली

(1)
गीत

हैं सौर-मंडलाधिकप के।
अधिकार में अमित ता।
जो हैं सुन्दर मन-मोहन।
बहु रंग रूप में न्यारे॥1॥

शिर के ऊपर रजनी में।
जो लाल रंग का तारा।
है जगमग-जगमग करता।
वह है मंगल महि-प्यारा॥2॥

भूतल की कुछ बातों से।
मिलती हैं उसकी बातें।
उसके दिन हैं चमकीले।
सुन्दर हैं उसकी रातें॥3॥

प्रात: या संध्या वेला।
यों ही या यंत्रों द्वारा।
है क्षितिज पर उगा मिलता।
छोटा-सा एक सितारा॥4॥

बुध उसको ही कहते हैं।
वह है हरिदाभ दिखाता।
क्षिति-तल पर अपनी किरणें।
है छटा साथ छिटकाता॥5॥

बहु काल मध्य नभतल में।
पीताभ एक उङु-पुंगव।
लोचन-गोचर होता है।
कर वहन बहु विभा-वैभव॥6॥

द्विजराज आठ अनुगत बन।
उसके वश में रहते हैं।
अतएव सकल विज्ञानी।
सुर-गुरु उसको कहते हैं॥7॥

प्राची अथवा पश्चिम में।
जो श्वेत समुज्ज्वल तारा।
देखा जाता है प्राय:।
है शुक्र वही दृग-प्यारा॥8॥

रवि-विधु तजकर, ऑंखों से।
जितने उङु हैं दिखलाते।
उन सब में बड़ा यही है।
बहु दिव्य इसी को पाते॥9॥

जो वलयवान तारक है।
जो मंद-मंद चलता है।
जो नील गगन-मंडल के।
नीलापन में ढलता है॥10॥

शनि वही कहा जाता है।
कुछ-कुछ है वह मटमैला।
वह नीलम-जैसा है तो।
है वलय-रजत का थैला॥11॥

इस मंडल में इन-से ही।
दो ग्रह हैं और दिखाते।
है एक और मिल पाया।
अब यह भी हैं सुन पाते॥12॥

मंगल एवं सुर-गुरु की।
कक्षाओं का मध्यस्थल।
यों उङु-पूरित है जैसे।
मालाओं में मुक्ता-फल॥13॥

इसमें हैं पुच्छल ता।
जिनकी गति नहीं जनाती।
झड़ बाँध-बाँध उल्काएँ।
हैं अद्भुत दृश्य दिखाती॥14॥

इस एक सौर-मंडल की।
इतनी विचित्र हैं बातें।
कर सकीं नहीं हल जिनको।
लाखों वर्षों की रातें॥15॥

तब अमित सौर-मंडल की।
गाथाएँ क्यों बतलायें।
बुध-जन हैं बूँदों-जैसे।
क्यों पता जलधि का पायें॥16॥

(2)

शार्दूल-विक्रीडित

होता ज्ञात नहीं रहस्य इनका, ये हैं अविज्ञात से।
कोई पा न सका पता प्रगति का विस्तार निस्तार का।
कैसे देख इन्हें न चित्त दहले, कैसे न उत्कंठ हो।
हैं ये केतु विचित्र, पुच्छ जिनके हैं कोटिश: कोस के॥1॥

क्रीड़ाएँ अवलोक लीं अनल की, देखी कला की कला।
ज्योतिर्भूति विलोक ली, पर कहाँ ऐसी छटाएँ मिलीं।
ऐसे लोचन कौन हैं वह जिन्हें देती नहीं मुग्धता।
उल्का की कलकेलि व्योम-तल की है दिव्य दृश्यावली॥2॥

प्रभात
(1)

गीत

प्रकृति-वधू ने असित वसन बदला सित पहना।
तन से दिया उतार तारकावलि का गहना।
उसका नव अनुराग नील नभतल पर छाया।
हुई रागमय दिशा, निशा ने वदन छिपाया॥1॥

आरंजित हो उषा-सुन्दरी ने सुख माना।
लोहित आभा-वलित वितान अधर में ताना।
नियति-करों से छिनी छपाकर की छवि सारी।
उठी धरा पर पड़ी सिता सित चादर न्यारी॥2॥

ओस-बिन्दु ने द्रवित हृदय को सरस बनाया।
अवनी-तल पर विलस-विलस मोती बरसाया।
खुले कंठ कमनीय गिरा ने बीन बजाई।
विहग-वृन्द ने उमग मधुर रागिनी सुनाई॥3॥

शीतल बहा समीर, हुईं विकसित कलिकाएँ।
तरुदल विलसें, बनीं ललिततम सब लतिकाएँ।
सर में खिले सरोज, हो गईं सित सरिताएँ।
सुरभित हुआ दिगन्त, चल पड़ीं अलि-मालाएँ॥4॥

हुआ बाल-रवि उदय, कनक-निभ किरणें फूटीं!
भरित तिमिर पर परम प्रभामय बनकर टूटीं।
जगत जगमगा उठा, विभा वसुधा में फैली।
खुली अलौकिक ज्योति-पुंज की मंजुल थैली॥5॥

बने दिव्य गिरि-शिखर मुकुट मणि-मंडित पाये।
कनकाभा पा गये कलित झरने दिखलाये।
मिले सुनहली कान्ति लसी सुमनावलि सारी।
दमक उठीं बेलियाँ लाभ कर द्युति अति प्यारी॥6॥

स्वर्णतार से रचे चारुतम चादर द्वारा।
सकल जलाशय लसे बनी उज्ज्वल जल-धारा।
दिखा-दिखाकर तरल उरों की दिव्य उमंगें।
ले-लेकर रवि-बिम्ब खेलने लगीं तरंगें॥7॥

हीरक-कण हरिदाभ तृणों पर गया उछाला।
बनी दूब रमणीय पहनकर मुक्ता-माला।
मिले कान्तिमय किरण लसे बालू के टीले।
सा रज-कण बने रजत-कण-से चमकीले॥8॥

जिस जगती को असित कर सकी थी तम-छाया।
रवि-विकास ने विलस उसे बहुरंग बनाया।
कहीं हुईं हरिदाभ, कहीं आरक्त दिर्खाईं।
कहीं पीत छवि कान्त श्वेत किरणें बन पाईं॥9॥

हुआ जागरित लोक, रात्रिकगत जड़ता भागी।
बहा कर्म्म का स्रोत, प्रकृति ने निद्रा त्यागी।
विजित तमोगुण हुआ, सतोगुण सितता छाई।
कला अलौकिक कला-निकेतन की दिखलाई॥10॥

पहने कंचन-कलित क्रीट मुक्तावलि-माला।
विकच कुसुम का हार विभाकर-कर का पाला।
प्राची के कमनीय अंक में लसित दिखाया।
लिये करों में कमल प्रभात विहँसता आया॥11॥