भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / तृतीय सर्ग / पृष्ठ - ६

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:33, 22 अगस्त 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ |संग्रह=पारिजात …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सरस समीर
( 1)
गीत

विकसित करता अरविन्द-वृन्द।
बहता है ले मंजुल मरन्द।
मानस को करता मोद-धाम।
आता समीर है मन्द-मन्द॥1॥

है कभी बजाता मंजु वेणु।
कीचक-छिद्रों में कर प्रवेश।
है कभी सुनाता सरस गान।
दे खग-कुल-कंठों को निदेश॥2॥

है कभी कँपाता जा समीप।
विकसित लतिका का मृदुल गात।
ले कभी कुसुम-कुल की सुगंध।
वह बन जाता है मलय-वात॥3॥

ले-लेकर उज्ज्वल ओस-बिन्दु।
जब वह करता है वर विहार।
तब बरसाता है हो विमुग्ध।
तरुदल-गत मुक्ता-मणि अपार॥4॥

वह करता है कमनीय केलि।
आ-आकर सुमन-समूह पास।
बहु घूम-घूम मुख चूम-चूम।
कलियों को वितरण कर विकास॥5॥

बहु लोभनीय लीला-निकेत।
सरि-लहरों को कर अधिक लोल।
भरता है उनमें लय ललाम।
कर-कर कल कलरव से कलोल॥6॥

पाकर विस्तृत तृण-राजि ओक।
वह जब जाता है पंथ भूल।
तब उड़ता है बन परम कान्त।
वन-भूमि-बधूटी का दुकूल॥7॥

मिल अलिमाला से प्रेम-साथ।
तितली से करता है विनोद।
बनती है उससे सुमनवान।
छाया की बहु छबिमयी गोद॥8॥

करके कितने आवरण दूर।
निज मंजुल गति का बढ़ा मोल।
दिखलाता है बहु दिव्य दृश्य।
वह हटा प्रकृति-मुख का निचोल॥9॥

वह फिरता है बन सुधा-सिक्त।
सब ओर सरस सौरभ पसार।
वनदेवी को दे परम दिव्य।
विकसित कुसुमों का कण्ठहार॥10॥

(2)
वंशस्थ

विभूति-आवास अनन्त-अंक का।
विकास है व्यापक तेज-पुंज का।
विधान है जीवन-भूत वारि का।
समीर है प्राण धरा-शरीर का॥1॥

सदा रही चित्त विराम-दायिनी।
विनोदिनी सर्व वसुंधरांक की।
सुगंधिकता है करती दिगन्त को।
विमोहिनी धीरे समीर धीरता॥2॥

रजनी सुन्दरी
(1)

गीत

घूँघट से बदन छिपाये।
काले कपड़ों को पहने।
आती है रजनी तन पर।
धारण कर उडुगण गहने॥1॥

पाकर मयंक-सा प्रियतम।
सहचरी चाँदनी ऐसी।
वह कभी विलस पाती है।
सुरलोक सुन्दरी जैसी॥2॥

पर कभी पड़ा मिलता है।
उस पर वह परदा काला।
जिसको माना जाता है।
भव अंधा-भूत अंधियाला॥3॥

नव राग-रंजिता सन्धया।
तारक-चय-मण्डित नभ-तल।
बहु लोक विपुल आलोकित।
हैं रजनी-सुख के सम्बल॥4॥

कमनीय अंक में उसके।
जन-कोलाहल सोता है।
भव कार्य बहुलता का श्रम।
उसका विराम खोता है॥5॥

जो शान्ति-दायिनी निद्रा।
जन श्रान्ति क्लान्ति हरती है।
तो शिथिल रगों में बिजली।
रजनी-बल से भरती है॥6॥

पा अर्ध्दरात्रि-नीरवता।
जब त्याग सचलता सारी।
सब जगत पड़ा सोता है।
अवलोक प्रकृति-गति न्यारी॥7॥

चल दबे पाँव से मारुत।
जब है ऊँघता दिखाता।
जब पादप का पत्ता भी।
हिल-डोल नहीं है पाता॥8॥

उस काल निबिड़ता तम की।
वह चादर है बन जाती।
जिससे जगती तन ढँक कर।
सुख अनुभव है कर पाती॥9॥

रजनी-उर हित की लहरें।
जब हैं रस-वाष्प उठाती।
तब ओस-बूँद बन-बनकर।
मोती-सा हैं बरसाती॥10॥

यामिनी मिले सन्नाटा।
जब साँय-साँय करती है।
उस काल वसुमती सुख के।
साधन का दम भरती है॥11॥

वह प्रति दिन उन पापों पर।
परदे डाला करती है।
अवलोक विकटता जिनकी।
कम्पित होती धरती है॥12॥

खंबों पर विलसित बिजली।
क्यों तारक-चय मद खोती।
क्यों अगणित दीपक बलते।
जो नहीं यामिनी होती॥13॥

तम-भरित सकल ओकों में।
अनुभूत ज्योति भरती है।
श्रम-भंजन कर जन-जन का।
रजनी रंजन करती है॥14॥

(2)
शार्दूल-विक्रीडित

है लीला करती, ललाम बनती, है मुग्ध होती महा।
है उल्लास-विलास से विलसती, पीती सुधा सर्वदा।
होके हासमयी विकास भरती, है मोहती विश्व को।
पा राकेश-समान कान्त मुदिता राका निशा सुन्दरी।

वंशस्थ

असंख्य में से उडु एक भी जिसे।
कभी नहीं कान्तिमयी बना सका।
अभागिनी भीति-भरी तमोमयी।
कहाँ मिली अन्यतमा अमा समा।

(3)
गीत

हैं सरस ओस की बूँदें।
या हैं ये मंजुल मोती।
या ढाल-ढालकर ऑंसू।
प्रति दिन रजनी है रोती॥1॥

क्यों ओस कलेजा पिघला।
वह क्यों बूँदें बन पाई।
किसलिए दया-परवश हो।
वह द्रवीभूत दिखलाई॥2॥

अवलोक अंधेरा जग में।
क्या रवि-वियोगिनी-छाया।
है घूम-घूमकर रोती।
इतना जी है भर आया॥3॥

हो विकल कालिमाओं से।
रजनी है अश्रु बहाती।
या विविध तामसिक बातें।
उसको हैं अधिक रुलाती॥4॥

अथवा विधु-से वल्लभ को।
क्षय-रुज-कवलित अवलोके।
है रुदन-रता वह अबतक।
ऑंसू रुक सके न रोके॥5॥

अथवा अतीत गौरव की।
कर याद व्यथा रोती है।
अपनी अन्तर-ज्वालाएँ।
दृग-जल-बल से खोती है॥6॥

या प्रकृति-स्नेह की धारा।
जल की बूँदें बन-बनकर।
तरुदल को सींच रही हैं।
कर लता-बेलियों को तर॥7॥

या ता तरल-हृदय बन।
हो दया से द्रवित भू पर।
बरसाते हैं नित मोती।
कमनीय करों में भरकर॥8॥

अवलोक तपन को आते।
सहृदयता दिखलाती है।
या सरस ओस अवनी पर।
सित सुधा छिड़क जाती है॥9॥

या रवि कोमल किरणों को।
अवलोक धारा पर आती।
तरुदल-थालों में भर-भर।
मोती है ओस लुटाती॥10॥

(4)
शार्दूल-विक्रीडित

हो नाना खग-वृन्द-नाद-मुखरा प्रात:प्रभा-पूरिता।
हो के पुण्य विकास से विकसिता सद्गंधा से गंधिकता।
ऊषा से बन रंजिता विलसिता हो शोभिता अंशु से।
होती है महि कान्त ओस-कर से पा मंजु मुक्तावली॥1॥

है प्राची प्रिय लालिमा सहचरी सिन्दूर-आरंजिता।
सोने-सी कमनीय कान्ति-जननी है दिव्यता भानु की।
है आलोक-प्रसू प्रभात-सुषमा है मण्डिता दिग्वधू।
ऊषा है अनुराग-राग-निरता, है ओस मुक्तामयी॥2॥