भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सोने का आदमी / स्वप्निल श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:07, 3 अगस्त 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=स्वप्निल श्रीवास्तव |संग्रह=ईश्वर एक लाठी है }} इस आदम...)
इस आदमी के दाँत सोने के हैं
गले में है सोने की जंज़ीर
अंगुलियों में सोने की नगदार अंगूठियाँ
यह मुक़म्मल सोने का बना हुआ आदमी है
जब हँसता है दिखाई पड़ती है सोने की चमक
यह हमारी दुनिया का आदमी नहीं है
किसने मढ़ा है इसके दाँत में सोना
इस आदमी को सिर से पाँव तक
किया है सोने से लैस
क्या इस आदमी के पास सोने की खान है ?
या वह हमारी नींद से चुराता है सोना और
अपनी देह पर पहन लेता है
देखो, वह हँस रहा है
उसके जबड़े खान की तरह फैल गए हैं
लोग अवाक हैं
एक साथ इतने सोने के दाँत देखकर
और चुपके-चुपके सबकी रात से
ग़ायब हो रहा है सोना