कबूलनामा / रवि प्रकाश
सुनो,
मैं
दुनिया की सभ्यताओं की ढूह पर
बैठा हुआ हूँ !
सुनो की
जिस ढूह पर बैठकर मैं
यह प्रस्तावना लिख रहा हूँ,
उस ढूह के निचे
न जाने कितनी माओं के होंठो पर
रक्त में सनी हुई लोरियां कैद हैं!
न जाने कितने बच्चों की
सुनी पड़ी आँखे
एक चीथड़े आँचल की तलाश में
खिलौनों और हथियारों के अंतर को पाट रही हैं!
मैं देख रहा हूँ
इसी ढूह के निचे
कितने बच्चे सुखी हुई छाती नोच रहे है
और बगल में बैठा हुआ कुत्ता
दुम हिला रहा है!
सुनो,
की मैं देख रहा हूँ की
युद्ध पर जाने के आदेश में
बैठे हुए सिपाही बारूद और गोलियां फांक रहे हैं
और सदेश लिखने के लिए
शराब की बोतलों के लेबल उतार रहे हैं!
मैं देख रहा हूँ
सात समंदर पार बैठा हुआ
एक आदमखोर
मेरे महबूब की हाथों की मेहँदी को
रामपुरी चाकू से छील रहा है
और उसके माथे के सिन्दूर का पेटेंट
मोनसेंटो ,वालमार्ट ,और यूनियन कार्बाइड को भेज रहा है!
सुनो
मगर सिर्फ ये मत समझो
की सुबह की पहली किरण के साथ
तुम्हारे घर की कुण्डी खोलने के लिए
ये किसी मुर्गे की बाग़ है
और ना ही पूरी रात आँखों में आये आंसुओं का हिसाब
ये सात समंदर पार बैठे
उस आदमखोर को
दुनिया की अदालत में
फांसी के फंदे पर लटकाए जाने से पूर्व
उसकी हलक में उंगलियाँ डालकर
पढाया जाने वाला "कबूलनामा" है !