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किसान (कविता) / मैथिलीशरण गुप्त

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हेमन्त में बहुदा घनों से पूर्ण रहता व्योम है पावस निशाओं में तथा हँसता शरद का सोम है हो जाये अच्छी भी फसल, पर लाभ कृषकों को कहाँ खाते, खवाई, बीज ऋण से हैं रंगे रक्खे कहाँ आता महाजन के यहाँ वहा अन्न सारा अंत में अधपेट खाकर फिर उन्हें है कांपना हेमंत में

बरसा रहा है रवि अनल, भूतल तवा सा जल रहा है चल रहा सन सन पवन, तन से पसीना बह रहा देखो कृषक शोषित, सुखाकर हल तथापि चला रहे किस लोभ से इस अर्चि में, वे निज शरीर जला रहे

घनघोर वर्षा हो रही, गगन गर्जन कर रहा घर से निकलने को गरज कर, वज्र वर्जन कर रहा तो भी कृषक मैदान में निरंतर काम हैं किस लोभ से वे आज भी, लेते नहीं विश्राम हैं

बाहर निकलना मौत है, आधी अँधेरी रात है और शीत कैसा पड़ रहा, थरथराता गात है तो भी कृषक ईंधन जलाकर, खेत पर हैं जागते यह लाभ कैसा है, न जिसका मोह अब भी त्यागते

सम्प्रति कहाँ क्या हो रहा है, कुछ न उनको ज्ञान है है वायु कैसी चल रही, इसका न कुछ भी ध्यान है मानो भुवन से भिन्न उनका, दूसरा ही लोक है शशी सूर्य है फिर भी कहीं, उनमें नहीं आलोक है