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परिन्दे कम होते जा रहे हैं / स्वप्निल श्रीवास्तव

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परिन्दे कम होते जा रहे हैं

शहरों में तो पहले नहीं थे

अब गाँवों की यह हालत है कि

जो परिन्दे महीने-भर पहले

पेड़ों पर दिखाई देते थे

वे अब स्वप्न में भी नहीं दिखाई देते


सारे पेड़ जंगल झुरमुट

उजड़ते जा रहे हैं

कहाँ रहेंगे परिन्दे


शिकारी के लिए और भी

सुविधा है

वे विरल जंगलों में परिन्दों को

खोज लेते हैं

घोंसले बनने की परिस्थितियाँ

नहीं हैं आसपास

परिन्दे सघन जंगलों की ओर

उड़ते जा रहे हैं

खोज रहे हैं घने-घने पेड़


वैसे आदमी भी कम होते

जा रहे हैं गाँवों में

वे उजड़ते जा रहे हैं

कलकत्ता-बम्बई-दिल्ली

अपने चारों की तलाश में

गाँवों में उनकी स्त्रियाँ हैं

जिनके घोंसले ख़तरे में हैं