भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हर तरफ़ तक़रार ही तक़रार / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
Kavita Kosh से
हर तरफ़ तक़रार ही तक़रार
ढूंढ़ कर लाओ ज़रा सा प्यार
सब्र की सीमा निरन्तर संकुचन पर है
अब त्वरित आवेश पूरे बांकपन पर है
हैं बिखरते-टूटते परिवार
ढूंढ़ कर लाओ ज़रा सा प्यार
बोल मीठे जप रहे पाखंड की माला
कटु वचन का फैलता जाता मकड़जाला
चल पड़ा किस ओर यह संसार
ढूंढ़ कर लाओ ज़रा सा प्यार
खो गया सद्भाव उन्नति के उपायों में
रह गया क्या भेद अपनों में, परायों में
स्वार्थों पर मित्रता का भार
ढूंढ़ कर लाओ ज़रा सा प्यार
बचपने ने स्नेह की आकांक्षा खोई
क्यों उचित सम्मान के हित प्रौढ़ता रोई
ध्वंस के दृढ़ हो रहे आधार
ढूंढ़ कर लाओ ज़रा सा प्यार
इस तरह कलुषित किये अंतःकरण किसने
कर लिया संवेदनाओं का हरण किसने
है बड़ी घातक समय की मार
ढूंढ़ कर लाओ ज़रा सा प्यार