भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
महागणित / श्रीरंग
Kavita Kosh से
Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:56, 30 अगस्त 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=श्रीरंग |संग्रह= }} {{KKCatNavgeet}} <poem> बहुत मामूली आदमी था …)
बहुत मामूली आदमी था वह
न जर थी न जोरू न जमीन
लेकिन
उसने अपने मामूली पन का
प्रदर्शन कभी नहीं किया .....
उसे मालूम थी
अपनी भूख प्यास
वह जब भूखा रहा भूख की चर्चा नहीं की
प्यास रहने पर चर्चा नहीं की प्यास और पानी की
उसे जानकारी थी
दुनिया में उसके जैसे भूखों की कमी थी न प्यासों की
करोड़ों के पास न जर था न जोरू, न जमीन, न मकान
न खाना, न पानी, न कपड़ा, न दवा-दारू
करोड़ों के पास कुछ भी नहीं था देने के लिए
करोड़ों एक दूसरे को देख कर बस संतोष कर सकते थे ....
बहुत मामूली आदमी था वह
लेकिन मामूली आदमी की तरह सोचनता नहीं था कभी
वह मामूली आदमियों के लिए खड़ा हुआ
और देखते ही देखते गैर मामूली हो गया ...।