भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सूरज / सजीव सारथी
Kavita Kosh से
Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:35, 3 सितम्बर 2011 का अवतरण
जब छोटा था,
तो देखता था,
उस सूखे हुए,
बिन पत्तों के
पेड़ की शाखों से,
सूरज...
एक लाल बॉल सा नज़र आता था,
आज बरसों बाद,
ख़ुद को पाता हूँ,
हाथ में लाल गेंद लिए बैठा -
एक बड़ी चट्टान के सहारे,
चट्टान मेरी तरह खामोश है,
और मैं जड़, उसकी तरह,
आज भी वो पेड़ मेरे सामने है,
और देखता हूँ
उसकी नंगी शाखों से परे,
चमकती हुई लाल गेंद,
आसमां पर लटकी हुई,
मेरी पहुँच से मीलों दूर.....