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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / चतुर्थ सर्ग / पृष्ठ - ७

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(4)

शार्दूल-विक्रीडित

पाता है रस जीव-मात्रा किससे सर्वत्र सद्भाव से।
धारा है रस की अबाधा किसके सर्वांग में व्यापिता।
हो-हो के सब काल सिक्त किससे होती रसा है रसा।
पृथ्वी में सरि-सी रसाल-हृदया है कौन-सी सुन्दरी॥1॥

पाता है कमनीय अंक उसका राकेन्दु-सी मंजुता।
देती है अति दिव्य कान्ति उसको दीपावली व्योम की।
हो कैसे न विभूतिमान सरिता, हो क्यों न आलोकिता।
होती हैं रवि-बिम्ब-कान्त उसकी क्रीड़ामयी वीचियाँ॥2॥

आभापूत प्रभूत मंजु रस से हो सर्वदा सिंचिता।
नाना कूल-द्रुमावली कुसुम से हो शोभिता सज्जिता।
लीला-आकलिता नितान्त कलिता उल्लासिता रंजिता।
भू में कौन सरी समान लसिता है दूसरी सुन्दरी॥3॥

कैसे तो कितनी अनुर्वर धारा होती महा उर्वरा।
पाती क्यों फल-फूल ऊसर मही हो शस्य से श्यामला।
क्यों हो प्रान्तर कान्त लाभ करते उद्यान-सी मंजुता।
होती जो सरला सरी न सिकता सिक्ता कहाती न तो॥4॥

है कान्ता रवि कान्त भूत कर से है ऊर्मि अंगच्छटा।
हैं शैवाल मनोज्ञ केश उसके जो पुष्प से हैं लसे।
पा के मंजु मयंक-बिम्ब बनती है चारु-चन्द्रानना।
तो हैं क्यों बहु-लोचना न सफरी से है भरी जो सरी॥5॥

वंशस्थ

उठा-उठा के लहरें विनोद की।
किसे नहीं है करती विनोदिता।
उमंगिता मंजुलता-विमोहिता।
तरंग-माला-लसिता तरंगिणी॥6॥

कभी नचा के रवि को मयंक को।
कभी खेला के उनको स्व-अंक में।
न मोह ले क्यों निज रंगतें दिखा।
तरंगिणी क्या बहुरंगिणी नहीं॥7॥

बना-बना स्पंदित मन्दिरादि की।
द्रुमावली की प्रतिबिम्ब-पंक्ति को।
समीर से खेल नचा मयंक को।
तरंगिणी है बनती तरंगिणी॥8॥

(5)
सरोवर
गीत

ऑंसू बहा-बहा यों छविमान कौन छीजा।
किसका करुण हृदय है इतना अधिक पसीजा।
हैं बार-बार करती किसको व्यथित व्यथाएँ।
बनती सलिलमयी हैं किसकी कसक-कथाएँ॥1॥

पावस मिले उमड़कर तन में न जो समाया।
क्यों क्षीण हो चली यों उसकी पुनीत काया।
प्रिय बंधु का विरह क्या अब है उसे सताता।
क्या प्रेम वारिधार का वह है न भूल पाता॥2॥

जो कर प्रभात-रवि का कमनीयता-निकेतन।
उसपर वितान देता दिव दिव्य कान्ति का तन।
जो मंजु वीचियों को मणि-माल था पिन्हाता।
सर ज्योति-जाल जिसका अवलोक जगमगाता॥3॥

पावक उपेत बन जब तप में वही तपाता।
तब था पयोद बनता उसका प्रमोद-दाता।
वह घेर रवि-करों का था पंथ रोक लेता।
बनकर फुहार उसको था बहु विनोद देता॥4॥

मंजुल मृदंग की-सी मृदु मंद ध्वनि सुनाता।
वह दामिनी-दमक-मिस हँस-हँस उसे रिझाता।
आतप हुए प्रखर जब उत्ताकप था बढ़ाता।
छाया-प्रदान कर तब उसको सुखित बनाता॥5॥

जब अंशु-जाल फैला तनता दिनेश ताना।
तब सांध्य व्योम-तल में धारकर स्वरूप नाना।
वह था तरंग-संकुल जलराशि को लसाता।
उसको सुलैस विलसित बहु वस्त्रा था पिन्हाता॥6॥

प्रतिदिन विलोक तन को जीवन-विहीन होते।
आश्रित उदक चरों को सुखमय विभूति खोते।
जिस काल सर बहुत ही कृशगात था दिखाता।
संजीवनी सुधा तब धन था उसे पिलाता॥7॥

जिसके समान जीवन-दाता न अन्य पाया।
हो-हो दयालु द्रवता जो सब दिनों दिखाया।
हो याद क्यों न उसकी जो रस-भरित कहाया।
जिसने बरस-बरस रस सर को सरस बनाया॥8॥

(6)
गीत

लोचनों को ललचाते हो।
बहुत हृदयों में बसते हो।
चुरा लेते हो जन-मानस।
खिले कमलों से लसते हो॥1॥

कमल-मिस खोल विपुल ऑंखें।
भव-विभव को विलोकते हो।
या कलित कोमल कर फैला।
ललित-तम भूति लोकते हो॥2॥

छटा-कामिनी कान्त-शिर के।
छलकते रस के कलसे हैं।
या कमल-पग कमलापति के।
सरस-तम उर में बिलसे हैं॥3॥

तुम्हा तरल अंक में लस।
केलिरत हो छवि पाती हैं।
लोकहित से लालायित हो।
ललित लहरें लहराती हैं॥4॥

क्यों न कर अंगा उगलें।
क्यों न जाये रवि आग बरस।
एकरस रह रस रखते हो।
कभी तुम बने नहीं असरस॥5॥

सुगंधिकत हो-हो धीरे चल।
समीरण तुम्हें परसता है।
चाँदनी रातों में तुम पर।
सुधाकर सुधा बरसता है॥6॥

तुम्हें क्या परवा, घन जल दे।
या गरज ओले बरसाये।
धूल डाले आकर ऑंधीरे।
या पवन पंखा झल जाये॥7॥

बोलते नहीं किसी से तुम।
लोग खीजें या यश गावें।
ललक लड़के छिछली खेलें।
या तमक ढेले बरसावें॥8॥

बिके हो सबके हाथों तुम।
मोल कब किससे लेते हो।
प्यासे हरते हो प्यारेसों की।
सदा रस सबको देते हो॥9॥

बुरा तुमने किससे माना।
बला ले या कि बला ला दे।
तपाये चाहे आतप आ।
चाँदनी चाहे चमका दे॥10॥

बहुत ही प्यारे लगते हो।
दिखाते हो सुन्दर कितने।
बता दो हमें सरोवर यह।
किसलिए हो रसमय इतने॥11॥