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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / सप्तम सर्ग / पृष्ठ - २

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कौन-कौन व्यंजन कैसा है, तुरत यह समझ जाता है।
मधुर फलों की मधुमयता का भी अनुभव कर पाता है।
जो जैसा है भला-बुरा उसको वैसा कह देता है।
रसनाहीन कौन बहु रसनाओं से सब रस लेता है॥4॥

मधुर लयों से बड़े मनोहर सुन्दर गीत सुनाता है।
बडे-बड़े ग्रंथों का कितना पढ़ा पाठ पढ़ जाता है।
बिना कंठ के कौन सदा अगणित कंठों से गाता है।
वाणी बिना कौन वक्ता बन वाणी का पद पाता है॥5॥

है कोमल-कठोर का अनुभव सर्द-गर्म का ज्ञाता है।
मलय-पवन से है सुख पाता, तप्त समीर तपाता है।
परसे कुसुम मुदित होता है, दवस्पर्श दुख देता है।
बिना त्वचा के कौन त्वचा के सकल कार्य कर लेता है॥6॥

सुन्दर मोती-से अक्षर लिख मोती कब न पिरोता है।
कनक-प्रसू वसुधातल को कर बीज विभव के बोता है।
चित्रा-विचित्र बेल-बूटे रच रंग अनूठे भरता है।
कर के बिना कौन बहु कर से काम अनेकों करता है॥7॥

जल में, थल में तथा गगन में पल में जाता-आता है।
उसकी चाल देखकर खगपति चकित बना दिखलाता है।
पवन-पूत क्या, स्वयं पवन कब गति में उसको पाता है।
पद के बिना विपुल पद से चल पदक कौन पा जाता है॥8॥

सकल इन्द्रियाँ बन विमूढ़ कर्तव्य नहीं कर पाती हैं।
जो सहयोग न मानस का हो तो असफल हो जाती हैं।
अन्तस्तल के मूलभूत भावों में वही समाया है।
मानव-तन में महाबली मन ही की सारी माया है॥9॥
 
मन से लिपटी ललनाएँ
(4)

ऑंखें हँस-हँस सदा अनेकों अद्भुत दृश्य दिखाती हैं।
ला सामने छटाएँ क्षिति की कर संकेत बताती हैं।
जो हम होती नहीं, भरा भूतल में अंधियाला होता।
किसी हृदय में नहीं प्रेम-रस का बहता मिलता सोता॥1॥

खग-कलरव वीणा-निनाद मुरली-वादन का मंजुल स्वर।
सकल राग आलाप किसी गायक का गान विमोहित कर।
उन सरिताओं का कलकल जो मंथर गति से बहती हैं।
सुना-सुनाकर श्रुतियाँ सब दिन बहुत रिझाती रहती हैं॥2॥

अवनीतल कुसुमावलि-सौरभ से सुरभित शरीर-द्वारा।
केसर की कमनीय क्यारियों का लेकर सुवास सारा।
मृग-मद कस्तूरी कपूर की मधुर मनोज्ञ सुरभि से भर।
स्नेहमयी नासिका सदा रहती है सेवा में तत्पर॥3॥

विपुल व्यंजनों पकवानों का स्वाद बता सुख देती है।
चखा-चखाकर मीठे-मीठे फल मोहित कर लेती है।
नीरसता से निबट सरसता-धाराओं में बहती है।
रसिका रसना विविध रसों से रस उपजाती रहती है॥4॥

बड़ी मधुर बातें कहती है, गीत मनोहर गाती है।
मधुमय ध्वनि स्वर्गीय स्वरों से सरस सुधा बरसाती है।
परम रुचिर रचनाएँ पढ़-पढ़ बहुत विमुग्ध बनाती है।
वाणी की मनोज्ञतम वीणा वाणी सदा बजाती है॥5॥

है अनुराग-राग-अनुरंजित रस से भरी दिखाती है।
है सहृदयता-मूर्ति प्रिय-वदन देखे दिवस बिताती है।
बनती है वर विभा तिमिर में बहँके पथ बतलाती है।
है समता की नहीं कामना, मति ममता में माती है॥6॥

काम पड़े पर काम चलाना पड़ता है जैसे-तैसे।
क क्यों न लीलाएँ कितनी बचे बेचारा मन कैसे।
नहीं छोड़ती क्षण-भर भी, कर विविध कलाएँ चिमटी हैं।
एक-दो नहीं, आठ-आठ ललनाएँ मन से लिपटी हैं॥7॥
 
मन और अलबेली ऑंखें
(5)

जादू चलता ही रहता है, तिरछी ही वे रहती हैं।
चुप रहकर भी मचल-मचलकर सौ-सौ बातें कहती हैं।
कैसे भला न तड़पे कोई, करती रहती हैं वारें।
काट कब नहीं होती है, चलती रहती हैं तलवारें॥1॥

सीधो नहीं ताकते देखा, टेढ़ी हैं इनकी चालें।
कैसे पटे बलाएँ अपनी जो वे औरों पर डालें।
लोग छटपटायें तो क्या, वे छाती छेदा करती हैं।
छलनी बने कलेजा कोई, कब वे छल से डरती हैं॥2॥

मरनेवाले मरें, मरें, पर वे तो विष उगलेंगी ही।
चोखे-चोखे बान चलाकर जान किसी की लेंगी ही।
दिल को छीने लेती हैं, किस लिए भला वे दिल देंगी।
तन बिन जाय भले ही कोई, वे तो तेवर बदलेंगी॥3॥

कभी रस बरसती रहती हैं, हँसती कभी दिखाती हैं।
कभी लाल-पीली होती हैं, कभी काल बन जाती हैं।
कभी निकलती है चिनगारी, कभी बहुत ही जलती है।
बहँके किसी के कलेजे पर कभी मूँग वे दलती हैं॥4॥

फिरते देर नहीं होती, अकसर वे अड़ती रहती हैं।
बड़ी-बड़ी ऑंखों से जब देखो तब लड़ती रहती हैं।
उलझें, कड़ी पड़ें, भर जायें, बात-बात में रो देवे।
यही बान है ऑंख लग गये अपने को भी खो देवे॥5॥

हिली-मिली वे रहे भले ही, मगर उलट भी जाती हैं।
लगती हो टकटकी, पर कभी पलके नहीं उठाती हैं।
ऑंसू आते हैं उनमें, पर मकर-भ वे होते हैं।
वे पानी हैं, मगर आग औरों के घर में बोते हैं॥6॥

बूँदें वे मोती हैं जिनके पानेवाले रोते हैं।
अपना पानी रखकर जो औरों का पानी खोते हैं।
कभी धार बँधाती है तो बन जाते ऐसे सोते हैं।
जिनमें बहकर लोग हाथ सब अरमानों से धोते हैं॥7॥