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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / एकादश सर्ग / पृष्ठ - ७

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(2)

भाग्य-लिपि मानना बड़ी है भ्रान्ति।
वह पतन गूढ़ गत्ता की है राह।
वह नदी है भयंकरी दुर्लङ्घ्य।
आज तक मिल सकी न जिसकी थाह॥1॥

क्यों न उसको मरीचिका लें मान।
है दिखाती सरस सलिल-आवास।
पर सकी मिल न एक बूँद कदापि।
बुझ न पाई कभी किसी की प्यासे॥2॥

है किसी बाँझ बालिका की बात।
जिसका केवल सुना गया है नाम।
पर किसी को मिला नहीं अस्तित्व।
है कहाँ पर धारा कहाँ धन धाम॥3॥

है कहीं पर नहीं दिखाती नींव।
है कहीं भी जमा न उसका पाँव।
क्यों बतायें उसे न सिकता-भित्तिक।
जब कि है भाव का सदैव अभाव॥4॥

है अमा की तिमिर-भरी वह रात।
कालिमा हो सकी न जिसकी दूर।
और भी हो गयी विपत्तिक-उपेत।
क्या हुआ जो मिलित हुए शशि सूर॥5॥

उस गहनता समान है वह गूढ़।
है बनाता जिसे विपिन बहु घोर।
है जहाँ दृष्टि को न मिलता पंथ।
है जहाँ पर विभीषिका सब ओर॥6॥

वह किसी नट कुवंशिका के तुल्य।
है जगाती अनेक सोये नाग।
बेसुरा बोल फोड़ती है कान।
है भरी छिद्र से घिरी खटराग॥7॥

है किसी ज्ञान-हीन लोक-निमित्त।
व्योम का पुष्प, मरुमही का नीर।
फेर में पड़ न, क्यों न मुँह लें फेर।
वारि की लीक है लिलार-लकीर॥8॥

(3)

भाग्य हैं अज्ञों का अवलंब।
आलसी का है परमाधार।
गले में पड़े भ्रान्ति का फंद।
लुट गया मणिमुक्ता का हार॥1॥

दूसरों का आनन अवलोक।
बढ़ गये कर्महीनता प्यारे।
मिला मिट्टी में साँसत भोग।
सुखों का सोने का संसार॥2॥

सो रहे हैं ऑंखों को मूँद।
समय पर सके नहीं जो जाग।
डालकर हाथ-पाँव वे लोग।
भाग में लगा रहे हैं आग॥3॥

अचाद्बचक हो जाये पविपात।
या बरस जाये सिर पर फूल।
भीरुता का है यह उपभोग।
सदा है भाग्य-भरोसा भूल॥4॥

लोक को काम-चोर की उक्ति।
किया करती है अधिक प्रसन्न।
उसे फल-दल-देते हैं पेड़।
धारा से वह पाता है अन्न॥5॥

बनाता कैसे उसे न मूढ़।
अभावों से कर-कर अभिभूत।
किसी सिर पर जब हुआ सवार।
भाग्यजीवी अभाग्य का भूत॥6॥

जब हमारा अति कुत्सित कर्म।
चलायेगा हम पर करवाल।
उस समय सुन्दर सरस प्रसून।
बरस पायेगा नहीं कपाल॥7॥

है गढ़ी हुई भाग्य-लिपि बात।
कथा उसकी है परम अलीक।
कहाँ पर मिला भाल का अंक।
कल्पिता है लिलार की लीक॥8॥

(4)

भाग्य का रोना रो-रोकर।
वृथा ही नर घबराता है।
भागता है श्रम से, तब क्यों।
भाग्य को कोसा जाता है॥1॥

साँसतें सहता है कोई।
तो किये का फल पाता है।
किया उस बेचा ने क्या।
भाल क्यों ठोंका जाता है॥2॥

उसी के अपने कर्मों से।
मनुज-कष्टों का नाता है।
क्यों पटकते हैं सिर को वह।
किसलिए पीटा जाता है॥3॥

खोलकर नर कानों को जब।
नहीं हित-बातें सुनता है।
बुरी धुन जब जी को भाई।
किसलिए सिर तब धुनता है॥4॥