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लफ्ज़/ सजीव सारथी

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मैं अक्सर उनका इंतज़ार करता हूँ,
अकेला बैठा कमरे में, ख़ामोशी में,
कई लफ्ज़ मुझे छू कर गुजरते हैं मगर,
मैं उनकी गहराई नहीं नाप पाता,
तभी कहीं एक रोशनी का घर खुलता है,
कुछ साये आँखों में उतर आते हैं,
कहीं भीतर से कोई कहता है –
‘सुनो ये तब की बात है,
जब तुम मुर्दा थे, मगर सांस ले रहे थे,
महसूस कर रहे थे, क्योंकि मैं जिन्दा था....”
और फिर-
लफ़्ज़ों की कड़ियाँ जुड़ने लगती है,
एक के बाद एक, खुद ब खुद,
कुछ गहरे समाये रहस्य जैसे,
हो जाते हैं बे पर्दा,
कलम की टेढ़ी मेढ़ी लकीरों में मगर,
उन रहस्यों के मायने कहीं छूट जाते हैं,
लफ्ज़ रह जाते हैं, अर्थ जैसे खो जाते हैं....