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कहीं और मिला कर मुझसे / साहिर लुधियानवी

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ताज तेरे लिए इक मज़हर-ए-उलफत ही सही

तुम को इस वादी-ए-रँगीं से अक़ीदत ही सही

मेरे महबूब कहीं और मिला कर मुझसे


बज़्म-ए-शाही में ग़रीबों का गुज़र क्या मानी

सब्त जिस राह पे हों सतवत-ए-शाही के निशाँ

उस पे उलफत भरी रूहों का सफर क्या मानी


मेरी महबूब पस-ए-पर्दा-ए-तशरीर-ए-वफ़ा

तूने सतवत के निशानों को तो देखा होता

मुर्दा शाहों के मक़ाबिर से बहलने वाली,

अपने तारीक़ मक़ानों को तो देखा होता


अनगिनत लोगों ने दुनिया में मुहब्बत की है

कौन कहता है कि सादिक़ न थे जज़्बे उनके

लेकिन उनके लिये तश्शीर का सामान नहीं

क्यूँकि वो लोग भी अपनी ही तरह मुफ़लिस थे


ये इमारत-ओ-मक़ाबिर, ये फ़ासिले, ये हिसार

मुतल-क़ुलहुक्म शहँशाहों की अज़्मत के सुतून

दामन-ए-दहर पे उस रँग की गुलकारी है

जिसमें शामिल है तेरे और मेरे अजदाद का ख़ून


मेरी महबूब! उनहें भी तो मुहब्बत होगी

जिनकी सानाई ने बक़शी है इसे शक़्ल-ए-जमील

उनके प्यारों के मक़ाबिर रहे बेनाम-ओ-नमूद

आज तक उन पे जलाई न किसी ने क़ँदील


ये चमनज़ार ये जमुना का किनारा, ये महल

ये मुनक़्कश दर-ओ-दीवार, ये महराब ये ताक़

इक शहँशाह ने दौलत का सहारा ले कर

हम ग़रीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक़

मेरे महबूब कहीं और मिला कर मुझसे