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रूठे रूठे से हबीब / सजीव सारथी
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रूठे रूठे से हबीब, मिले हैं कुछ,
हमने पूछा तो कहा - गिले हैं कुछ
ख्वाब बोये जो हमने, क्या बुरा किया,
चंद मुरझा गए तो क्या, खिले हैं कुछ
जो कच्चे हैं, कड़वे हैं तो हैरत क्या,
पके फलों में भी तो पिल-पिले हैं कुछ
कहाँ रहा अब ये प्रेम का ताजमहल,
ईट ईट में अहम् के, किले हैं कुछ
बस इतना समझ लीजिये तो बहुत है,
अपनी हदों से सब ही, हिले हैं कुछ
चुप रहिये, न बोलिए, कि छिल जायेंगे.
मुश्किलों से जख्म जो, सिले हैं कुछ