पेपरवेट / हरीश बी० शर्मा
फड़फड़ाते कागजों के हाथों
‘आखा’ देकर
पवित्रता की पैरवी करती
दंतकथांए सुनाती बुढ़ियाएं
कितनी ही तीज-चौथ करवा चुकी हैं
लेकिन अब
ये पेपरवेट कम होने लगे हैं
उड़ने लगे हैं
कथा के कागज
चौड़े आने लगा है चंदामामा से धर्मेला
तीज-चौथ आज भी आती हैं
भूखे पेट रहकर, आखा हाथ में रखकर
बची-खुची बुढ़ियाएं तलाश
कथाएं फिर भी सुनी जाती हैं
फिर होती है ऐसे ‘पतियों’ पर बहस
घंटो चलती है
उस जमाने पर टीका-टिप्पणी
सीता और द्रौपदी के दुख-सुख पर चटखारे
चलनी की आड़ से देखे चांद की
खूबसूरती भी शेयर की जाती है
‘हम की क्यों रखें व्रत’
ऐसी सुगबुहागट भी होती है
कुछ ऐसी बातों पर ध्यान नहीं देते
कहते हैं-बाकी है अभी बहुत-कुछ
कुछ कहते हैं-खेल ही अब शुरू होगा बराबरी का।
जब कुछ भी नहीं रहेगा चोरी-छाने।