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अब क्या / हरीश बी० शर्मा

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धीमे-धीमे पैर बढ़ाए
नजर गड़ाए मंजिल पर
अंतस को हर बार टटोला
मन के तराजू खुद को तोला
वजन सही था, संतुलन था
माशा-तोला नहीं फरक
खूब संभाला खुद को लेकिन
लिखा फिसलना था
परवश थे जाहिर के आगे
ये तो होना था
किस्मत भारी, कर्म अभागे
सच चौभाटे चौड़े आया
किसे ढापना
चादर अब क्या
करे ओढ़ना क्या
अनहद प्रेम की दावेदारी
रातों जागी नींद हमारी
किसी सुबह इक बात बन गई
बात बने जो
गांठ लग गई
बंद किवाड़े-सांकल लग गई
खोल करेंगे क्या
नीलामी में बोली चूकी
दावों का अब क्या।
पानी उतरा जब चेहरे का
करे मुखौटा क्या