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डर / हरीश बी० शर्मा
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मैंने
कई बार कोशिश की
तुम्हारा चेहरा पढ़ने की
नाकामयाब रहा
क्योंकि हर बार तुम
मुझे धत्ता बताकर चले जाते हो
झिड़क देते हो
मेरी साइकोलोजी को
अब मैं भी
बहुत कम
इन मुई भावभरी रेखाओं
आंखों की कोरों से फूटते डोरों
और
फड़फड़ाने को आकुल कसमसाते होंठों को
सख्ती से दबाकर रखता हूं-रोकता हूं
डरता हूं जो मैंने पढ़ा है मेरा चेहरा पढ़कर जान गया तू तो
झिड़क नहीं सकूंगा।
फूट जाऊंगा मैं तो।