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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / द्वादश सर्ग / पृष्ठ - ५

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(8)
प्रलय-प्रसंग

खुले, रजनी में निद्रा-गोद।
जब शयन करता है मनुजात।
अंक में उसके रखकर शीश।
भूलकर भव की सारी बात॥1॥

सुषुप्तावस्था का यह काल।
कहा जाता है नित्य प्रलय।
क्योंकि हो जाता है उस समय।
गहन निद्रा में भव का लय॥2॥

मृतक के लिए विना क्षय हुआ।
क्षयित होता है विश्व-वलय।
अत: प्राणी का प्राण-प्रयाण।
कहाता है नैमित्तिकक प्रलय॥3॥

मनोहर लोक-विलोचन-चोर।
गगन-सर-सरसीरुह अभिराम।
तामसी रजनी के सर्वस्व।
जगमगाते ता छवि-धाम॥4॥

धारातल-जैसे ही हैं ओक।
अत: उनका भी होगा नाश।
एक दिन वे, हो बहुश: खंड।
गँवाएँगे निज दिव्य प्रकाश॥5॥

बना नभ-तल को ज्योति-निकेत।
हुआ करता है उल्कापात।
और क्या है? वह है, द्युतिप्राप्त
मृतक तारक-तनांश-विनिपात॥6॥

धारा पर लाखों बरसों बाद।
काल का जब होगा आघात।
उस समय उसके भी तन-खंड।
करेंगे अरबों उल्कापात॥7॥

पिंड हो या हो कोई लोक।
जब कि उसका होता है नाश।
है महाप्रलय कहाता वही।
प्राकृतिक है यह भव अवकाश॥8॥

सकल लोकों का करके नाश।
प्रकृति को दे देना विश्राम।
बनाना भव को तिमिराच्छन्न।
है महा महाप्रलय का काम॥9॥

काल का है प्रकाण्ड व्यापार।
प्रकृति का विधवंसक आरोप।
लोप-लीलाओं का है केन्द्र।
लोक कम्पित कर प्रलय-प्रकोप॥10॥

(9)

काल-सागर में बन निस्सार।
एक दिन डूबेगा संसार॥1॥

तब दिवस-मणि मणिता कर लाभ।
न मण्डित हो पाएगा व्योम।
न रजनी के रंजन के हेतु।
विलस हँस रस बरसेगा सोम।
कगा नभतल में न विहार॥2॥

ललकते लोचन के सर्वस्व।
मनोहर मोहक परम ललाम।
गगनतल के तारक-समुदाय।
न बन पाएँगे, हो छविधाम।
प्रकृति-उर-विलसित मुक्ता-हार॥3॥

विहँसती लसती भरी उमंग।
रंगिणी ऊषा प्रात:काल।
खुले प्राची-दिगंगना-द्वार।
न झाँकेगी घूँघट-पट टाल।
लिए रवि-पूजन का संभार॥4॥

सुनाता बड़े रसीले राग।
बहाता गात-विमोहक वात।
खिलाता सुन्दर सरस प्रसून।
न आयेगा उत्फुल्ल प्रभात।
कर जगत में नव ज्योति-प्रसार॥5॥

धारा पर उज्ज्वल चादर डाल।
रजकणों को कर रजत-समान।
दलन कर रजनी का तमतोम।
दृगों को कर दिव्यता-प्रदान।
दिखाएँगे न दमकते बार॥6॥

गगनतल-चुम्बी मेरु-समूह।
न पहनेंगे कमनीय किरीट।
कलित कर से उनपर राकेश।
सकेगा नहीं छटाएँ छींट।
न शृंगों का होगा शृंगार॥7॥

दिखाएँगे न दिव्यतम दृश्य।
विरचकर विचित्रतामय वेश।
विविधताओं से हो परिपूर्ण।
बड़े ही सुन्दर बहुश: देश।
करेंगे नहीं विभव-विस्तार॥8॥

वहन कर बहु विभूति-अनुभूति।
सृजन कर सरस हृदय-समुदाय।
ग्रहण कर नूतनता-सम्पत्तिक।
नागरिकतामय नगर-निकाय।
न खोलेंगे विमुग्धता-द्वार॥9॥

कगी उन्हें नहीं अति कान्त।
नवल कोमल किसलय कर दान।
बना पादपचय को हरिताभ।
तानकर सुन्दर लता-विमान।
वनों में लसित वसंत-बहार॥10॥