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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / चतुर्दश सर्ग / पृष्ठ - ३

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विवाह

(8)
पूततम है विधन विधिक का।
नियति का है नियमित नियमन।
प्रकृति का है अनुपम आशय।
वेद का वन्दित अनुशासन॥1॥

वंश-वर्ध्दक वसुधा-हित-रत।
सदाचारी सपूत को जन।
क्षेत्रा में विश्व-सृजन के वह।
सदा करता है बीज-वपन॥2॥

शान्ति का है वर आवाहन।
सुकृति का संयत आराधन।
मधुरता का विकास मधुमय।
सरसता का सुन्दर साधन॥3॥

रमा का रंजन होता है।
गिरा गौरवित दिखाती है।
मंजुतम मूर्ति त्याग की बन।
सती सत उससे पाती है॥।4॥

विलसता सुरतरु है उसमें।
मलय-मारुत बह पाता है।
स्वर्ग-जैसा सुन्दर उससे।
गृही का गृह बन जाता है॥5॥

बालकों का विधु-सा मुखड़ा।
नयन को कैसे दिखलाता।
सुधारस कानों में कैसे।
मृदु वचन उनका बरसाता॥6॥

अलौकिक रत्न लाभ कर क्यों।
दिव्य जगतीतल बन जाता।
लाल माई के क्यों मिलते।
जो न जुड़ता पावन नाता॥7॥

भूति से उसकी जल-पय-सम।
एक हो जाते हैं दो मन।
मिलाता है दो हृदयों को।
मुक्ति-साधन विवाह-बंधन॥8॥

धर्म-धारणा
(9)

सहज सनातन धर्म हमारा।
परम अपावन जन-निमित्त है पावन सुरसरि-धारा।
भव-पथ के भूले-भटके को दिव्य-ज्योति धारुव-तारा।
पाप-पुंज-रत पामर नर को खरतर असि की धारा।
सकल काल अभिमत फलदायक है सुरुतरु-सा न्यारा।
विविध-रोग-उपशम-अधिकारी है परिशोधिकत पारा।
ज्ञान-निकेतन अखिल सिध्दि-साधना-सदन श्रुति प्यारा।
भुक्ति-मुक्ति वर भक्तिविधायक सिध्द-समाधिक-सहारा।
त्रिककालज्ञ सर्वज्ञ तपोधन ने है उसे सुधारा।
ले अवतार आप विभुवर ने प्राय: उसे उबारा।
वह विकास है वह जिससे विकसित है अनुभव सारा।
धारा-ज्ञान-विज्ञान दिव्य लोचन का है वह तारा।
भू के सकल पंथ मत में है उसका प्रबल प्रसारा।
नभ में दीपक बले उसी की जगी ज्योति के द्वारा।
सँभल उसी की पूत शान्ति के कर से हुए उतारा।
मधुर बन सकेगा वसुधातल का अशान्ति-जल खारा॥1॥

उद्बोधन
(10)

किसी की उँगली का संचार।
भर सका जिसमें बहु प्रिय राग।
हो सका जिसमें ध्वनित सदैव।
भूतभावन-पावन-अनुराग॥1॥

सुनाता है भवहित-संगीत।
छिड़े पर जिसका अनुपम तार।
खोल देती है हृदय-कपाट।
सुझंकृत हो जिसकी झंकार॥2॥

सुने जिसका बहु व्यंजक बोल।
सुरुचि सकती है शुचि पर पूज।
मानसों को करती है पूत।
सुगुंजित हो-हो जिसकी गूँज॥3॥

पान कर जिसका रस स्वर्गीय।
कान बन सका सुधा का पात्रा।
उस अलौकिक तंत्री का नाद।
सुने वसुधातल-मानवमात्रा॥4॥

(11)

सती ने किससे पाई सिध्दि।
रमा ने कान्ति परम कमनीय।
गिरा किससे पाये अनुभूति।
बनी सब भव में अनुभवनीय॥1॥

लाभ कर किससे दिव्य विकास।
हुए उद्भासित सा ओक।
अलौकिकता किसकी अवलोक।
लोक को मिला विपुल आलोक॥2॥

मिली दिनमणि को किससे ज्योति।
कलानिधि को अति कोमल कान्ति।
समुज्ज्वल किससे हुए दिगन्त।
पा सकी वसुधा किससे शान्ति॥3॥

कौन है भव का सुन्दर भाव।
कौन है शिव-ललाट की लीक।
धारातल के सा शुभ कर्म।
कहाये किससे कान्त प्रतीक॥4॥

भाल पर किसके है वह तेज।
काँपता है जिससे तम-पुंज।
विलोके किसकी प्रगति ललाम।
भव-अहित-दल बनते हैं लुंज॥5॥

कौन है वह कमनीय प्रवाह।
झलकता है जिसमें विभु-विम्ब।
देखते हैं किसमें बुध-वृन्द।
क्यों मिलित हुए बिम्ब-प्रतिबिम्ब॥6॥

कौन है वह विस्तृत आकाश।
मिल गये जिसका निर्मल अंक।
चमकते हैं बन-बन बहु कान्त।
लोक-हित नाना मंजु मयंक॥7॥