भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ढेला और पत्ता / अरुण कमल
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:42, 6 सितम्बर 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अरुण कमल }} हम कुल दो थे दोनों साथी राह थी लम्बी थक कर च...)
हम कुल दो थे
दोनों साथी
राह थी लम्बी
थक कर चूर,
वह भी मैं भी
कस कर भूख लगी थी मुझको,
पैसा भी कुछ जेबी में था,
किन्तु उसे भी देना होगा,
यही सोच मैं भूखा चलता गया ।
कस कर प्यास लगी थी उसको,
पैसा भी कुछ जेबी में था,
किन्तु उसे भी देना होगा,
यही सोच वह प्यासा चलता गया ।
दोनों खा सकते थे थोड़ा
दोनों पी सकते थे थोड़ा
दोनों जी सकते थे थोड़ा
मैं भी वह भी ढेला-पत्ता ।