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चारदीवारी की गाथा / अरुण कमल
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मैं एक राजा के बाग़ की चारदीवारी
अगोरती रही आम और लीची बेर अमरूद
सदी गुज़री राजे गुज़रे सड़े फल ढेर
कितनी बकरियों गौवों को मैंने टपने से रोका
ललचाए छोकरों लुभाए राहगीरों
किसी को मेरे रहते कुछ नहीं भेंटा
बस चिड़ियों पर मेरा वश नहीं था
और अब गिर रही हूँ
चारों तरफ़ से झड़ रही हूँ
अब कौन आएगा बचाने
मंजरों से धरती तक लोटा है आम