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बाहर के जल की खातिर / नंदकिशोर आचार्य

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छलछल
शिखरों से घाटी में बहते आते जल की
छुलछुल से
छुलती जाती है शिला
उभरती आती है साकार तरलता
केवल शिल्पी ही नहीं है
जल
प्रतिमा भी है !

सूखे होंठ, कंठ में काँटे से उग आयें
जल रहे प्राण
देह प्यासी है धधकती एक आर्त्त पुकार
मरूथल में
प्यास बाहर के जल की खातिर
भीतर के जल की आकुलता है
केवल नर ही नहीं है
जल
नारायण भी है !

प्रलयंकर झँझाचक्र जलों के
सागरतल से शिखरों तक
सब कुछ लील जाय
फुँकारें जल की क्रुद्ध
युद्ध जल का जल से
धीरे-धीरे सब कुछ अपने में
बैठ जाय
और फिर उग आता है कमल
केवल विलय नहीं है
जल
व्यक्ति भी है !

(1980)