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औरत हूँ मैं / भारती पंडित

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अल-सुबह जब सूरज खोलता भी नहीं है झरोखे आसमान के चिडिया करवटें बदलती हैं अपने घरोंदों में उसके पहले उठ जाती हूँ मैं घर को सजाती संवारती सुबह के काम समेटती चाय के कप हाथ में लिए सबको जगाती हूँ मैं जानती हूँ, औरत हूँ मैं ........

बच्चों की तैयारी, पतिदेव की फरमाइशें रसोई की आपा धापी सासू माँ की हिदायतें इन सब के बीच खुद को समेटती सहेजती हूँ मैं. कोशिश करती हूँ कि माथे पर कोई शिकन न आने पाए जानती हूँ औरत हूँ मैं.....

घर, दफ्तर,, मायका ससुराल गली, कूचा ,मोहल्ला पड़ोस सबके बीच संतुलन बनाती मैं चोटों को दुलार, बड़ों को सम्मान अपनापन सभी में बाँटती मैं चाहे प्यार के चंद मीठे बोल न आ पाए मेरी झोली में जानती हूँ औरत हूँ मैं .......

कोई ज़ुबां से कहे न कहे मेरी तारीफ़ के दो शब्द भले ही ना करे कोई मेरे परिश्रम की कद्र अपने घर में अपनी अहमियत जानती हूँ ,पहचानती हूँ मैं घर जहां बस मैं हूँ हर तस्वीर में दीवारों में बच्चो की संस्कृति संस्कारों में रसोई में, पूजाघर में घर की समृद्धी, सौंदर्य में पति के ह्रदय की गहराई में खुशियों की मंद पुरवाई में जानती हूँ बस मैं ही मैं हूँ इसीलिए खुश होती हूँ कि मैं एक औरत हूँ..

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