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घाटी हरी होती है / नंदकिशोर आचार्य

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आँखें बिछाये
प्रतीक्षातुर हो रही घाटी
घुटती उसाँसें-
ठिठकता आ रहा बादल
उमग कर लिपट जाता
भींच लेता है
समर्पित शिथिल होते अंग
कभी खुलती, कभी शर्माती
घाटी हरी होती है।

(1980)