भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चीन्हूँ मैं चीन्हूँ तुम्हें ओ,विदेशिनी / रवीन्द्रनाथ ठाकुर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:06, 16 सितम्बर 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKAnooditRachna |रचनाकार=रवीन्द्रनाथ ठाकुर }} {{KKCatKavita}} Category:बांगला <poem> ची…)
|
चीन्हूँ मैं चीन्हूँ तुम्हें ओ, विदेशिनी !
ओ, निवासिनी सिंधु पार की-
देखा है मैंने तुम्हें देखा, शरत प्रात में माधवी रात में,
खींची है हृदय में मैंने रेखा, विदेशिनी !!
सुने हैं,सुने हैं तेरे गान, नभ से लगाए हुए कान,
सौंपे हैं तुम्हें ये प्राण, विदेशिनी !!
घूमा भुवन भर आया नए देश,
मिला तेरे द्वार का सहारा विदेशिनी !!
अतिथि हूँ अतिथि, मैं तुम्हारा विदेशिनी !!
मूल बांगला से अनुवाद : प्रयाग शुक्ल