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घरौंदा / नंदकिशोर आचार्य

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मैं नहीं जानता
यह किस ने किया
लेकिन मुझ को दिया गया
वह-तुम्हीं कहो-भाषा है
या बालू की सूखी हुई पपड़ियाँ
जो हाथ लगाते ही भुराभुरा जाती हैं
और देर तक
हथेली में करकरास बनी रहती है।

मेरी सारी पीड़ा को
चूस कर भी शब्द
किसी कोने से गीले नहीं होते
कि थोड़ी देर के लिए ही सही
एक घरौंदा ही बना लूँ।

रेत के इस विशाल मैदान में-
जहाँ मेरा हर रचाव ढह जाता है-
सचमुच कुछ सरजुगाँ भी
या कि ऐसे ही
पाँव पर सूखी रेत जमा कर
बस थपथपाते जाना है ......

(1968)