भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बरसात की एक शाम छत पर / रेखा चमोली

Kavita Kosh से
Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:13, 16 सितम्बर 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रेखा चमोली |संग्रह= }} <Poem> परे दिन घिरे रहने के बाब…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

परे दिन घिरे रहने के बाबजूद
बादलों ने कपडे धो कर झटके भर हैं

और अब
एक पहाड को दूसरे से जोडती
बादलों की सीढियों पर चढ फिसल रही हैं किरणें

कुछ दिनों पहले लगी आग में
झुलसे अधजले पेडो की जडे
अपनें अंधेरे किचन में व्यस्त हैं
निराश हैं अपनी जडता पर

तेजी से आता एक पंछी
तार से टकराकर घायल हो गया है ।

हवा को अपना दुपटटा तेजी से लहराता देख
सूरज ने कस कर अपना लाल मफलर लपेट लिया