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कुल्लू से लौटने पर / त्रिपुरारि कुमार शर्मा

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महक रहा है मेरे जिस्म का हर एक हिस्सा
न जाने किसका ये असर है मेरे उपर
कि मेरी रूह एक चादर-सी बिछती जाती है
उतर रही है कोई चाँदनी-सी कमरे में
मैं तेरी याद की आगोश में सुलगता हूँ
तुम मेरे कान में चुपके से कही जाती हो
कुछ दुरी पर कुछ लोग मुस्कुराते हैं
मैनें हाथों से जो चेहरा थामना चाहा
बडी अज़ीब सी अदा से मुड़ गई हो तुम
मेरी आँख ने जब भी पलट कर देखा है
तुम शर्म के साए में पनाह लेती हो
मैं उम्र की बाहों में ढूँढ़ता हूँ तुम्हें...

बस एक पल में यूँ मुस्कुरा दिया तुमने
बस एक पल में अपना बना लिया तुमने
बस एक पल में मैं मालिक-ए-नशेमन था
बस एक पल में तिनका नहीं बचा मेरा
बस एक पल में दुनिया उज़ड गई मेरी
बस एक पल में सबकुछ बिखर गया मेरा
बस एक पल में तुमने जलाये ख़्वाब सभी
बस एक पल में मैं राख हो गया देखो...

मैं ख़्वाब के टूकडों को कभी चुन न सका
अपने प्यार के रिश्ते को कभी बुन न सका
दिल के बाग़ में जब तेज़ हवा चलती है
टूटने लगता है हर दरख़्त से पत्ता
सच कहूँ तो मैं भी टूट जाता हूँ
अपने कमरे में खुद को मौज़ूद पाता हूँ
उदास लब से एक बार मुस्कुराता हूँ
मैं लौट तो आया हूँ कुल्लू से मगर
ऐसा लगता है वो मेरे साथ चला आया है
या खुद को छोड़ आया हूँ कहीं उस वादी में...