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मैं जानता हूँ / त्रिपुरारि कुमार शर्मा

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रात भर
नींद की आगोश में सोयी रही दुनिया
और तुम्हारी पलकों पर
कुछ शबनमी कतरे
जागते रहे।

कहीं दूर बैठा मैं
उन अश्कों के दरिया से
खुशनुमा लम्हे छानता रहा
तुम्हारे लबों का लम्स
एक खुशबूदार लफ़्ज़ की तरह
सोच की सतह पर तैरने लगा
जैसे चूमता रहता है हर्फ़ को नुक़्ता।

रूह की वादी नम होने लगी
डूब जाने के एहसास भर से
घबराया हुआ चाँद
फ़लक से नीचे नहीं उतरा
सूखने लगे जब साँस के दरख़्त
वक़्त की रफ़्तार हो गई कुछ सख़्त
अचानक एक लम्हे की नींद खुल लगी
मैंने देखा कि सहर जाग चुकी है।

कहीं कुछ भी नहीं बदला
सभी ख़ामोश हैं अब भी
मगर मैं जानता हूँ रात भर
नींद की आगोश में सोयी रही दुनिया
और तुम्हारी पलकों पर
कुछ शबनमी कतरे
जागते रहे।